Home Hindiजैन सिलेबस : दर्शन आचार . ३ : निर्विचिकित्सा भाव

जैन सिलेबस : दर्शन आचार . ३ : निर्विचिकित्सा भाव

by Devardhi
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चिकित्सा का अर्थ है योग्य उपचार .
विचिकित्सा का अर्थ है योग्य उपचार की उपेक्षा .
धर्म के द्वारा मन और आत्मा को शान्ति एवं शुद्धि मिलती है .
कुछ भावनात्मक गलतिया ऐसी हैं जो धर्म का बल तोड़ देती हैं .
उन्हें समझ लेना जरूरी है . तीन बातें हैं .

१ .
जैन साधु साध्वी की वेशभूषा , आहारचर्या , दैनिक क्रियाएं आदि को लेकर मन में अनुचित विचार नहीं बनाना चाहिए .
साधु साध्वी जी के प्रति , द्वेष – नाराजगी – जुगुप्सा के भाव बनाने से , विचिकित्सा – दोष लगता है . ठीक उसी प्रकार धर्मात्माओं के लिये भी नाराजगी या द्वेष रखने से विचिकित्सा – दोष लगता है . 

२.
जैन धर्म अनुसार जो धार्मिक गतिविधि होती हैं उनमेंसे किसी क्रिया को लेकर , किसी विधि को लेकर , किसी प्रवृत्ति को लेकर –
ऐसा सोचना जो श्रद्धा विरूद्ध हो ,
ऐसा बोलना जो श्रद्धा विरूद्ध हो ,
ऐसा लिखना जो श्रद्धा विरूद्ध हो –
उसे विचिकित्सा – दोष कहते है .

३ .
धर्म प्रवृत्ति के फल के विषय में संदेह नहीं रखना चाहिए .
धर्म के कारण सुख – संपत्ति का लाभ होता है .
धर्म के कारण सुख – संपत्ति का त्याग करने का मन होता है .
धर्म के कारण परलोक में सद् गति मिलती है .
धर्म के कारण आत्मा , अनंत सुखमय मोक्ष को प्राप्त कर सकती है .
धर्म से कोई फल नहीं मिलता है – ऐसा सोचने से विचिकित्सा – दोष लगता है .

तीनों विचिकित्सा का परिहार करने से निर्विचिकित्सा भाव बनता है . 

स्वाध्याय – 

१ . विचिकित्सा किसे कहते है ?
२ . प्रथम विचिकित्सा का स्वरूप क्यां है ?
३ . द्वितीय विचिकित्सा का स्वरूप क्यां है ?
४ . तृतीय विचिकित्सा का स्वरूप क्यां है ?

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