जीवदया जैन धर्म का प्राण है . जीवदया के तीन नियम है .
एक , स्वयं की जीवन शैली ऐसी बनाए कि अपने कारण किसी को पीड़ा न हो . किसी ने दी हुई पीड़ा हमें अच्छी नहीं लगती है वैसे हम किसी को पीड़ा दे वह उसे अच्छा नहीं लगता है . हमारी वाणी से किसी को पीड़ा नहीं होनी चाहिए . हमारे खाने पीने की सामग्री , नहाने धोने की सामग्री , पहनने ओढ़ने की सामग्री में हिंसाजनित द्रव्यों का उपयोग न किया हो यह आवश्यक है . जीवन व्यवहार ऐसा नहीं होना चाहिए जिससे किसी हिंसा को समर्थन मिले .
दो , जिस जिस जीव पर रोग , दुःख अथवा प्राणहारी संकट आया हो उसे रोग , दुःख अथवा प्राणहारी संकट से बचाने की कोशिश करें . हम किसी का दुःख दूर करे यह तब मन में कोइ स्वार्थ अथवा अहंकार को अवकाश न दे . हमारे हृदय में विश्व के सभी जीवों के प्रति वत्सल करुणा होनी चाहिए .
तीन , जहां दु:खी मनुष्यों की एवं पशुपंछीओं की रक्षा , चिकित्सा एवं जीवन व्यवस्था हो रही है ऐसी संस्थाओं को अधिक से अधिक सहयोग देते रहें . हम अकेले अपने हाथों से कितने जीवों तक सुरक्षा पहुंचा सकते हैं यह एक सवाल है . जहां सेंकडों , हजारों जीवों को सुरक्षा मिलती है वहां सहयोग देने से अपरिसीम पुण्य का निर्माण होता है .
जैनियों के द्वारा पर्युषण पर्व के उपलक्ष में जो जीवदया की विशेष प्रवृत्ति की जाती है उसे अमारि प्रवर्तन कहां जाता है . आप अधिक से अधिक अमारि प्रवर्तन कर के पर्युषण को सफल बना सकते हैं .
