Home Hindiश्री उत्तराध्ययन सूत्र के ३६ अध्ययनों का सारांश : भाग ४

श्री उत्तराध्ययन सूत्र के ३६ अध्ययनों का सारांश : भाग ४

by Devardhi
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उत्तराध्ययन

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१७. पाप श्रमणीय अध्ययन
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१. शरीर का रोग लाचारी है . शरीर का राग दोष है .
२. साधना कें नियम अखंड रहे यह जरूरी है .
३. दोषवान् के लिये अनुकंपा के भाव रखो , द्वेष मत रखो .
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१८. संयतीय अध्ययन
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१. अशुभ मनोभाव को जीतने के लिये साधु का मार्गदर्शन अनिवार्य है .
२.दीर्घकालीन व्रत पालन से आगामी भव में तीव्र वैराग्य मिलता है .
३. दीर्घकालीन अव्रत पालन से आगामी भव में तीव्र राग द्वेष मिलते हैं .
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१९ . मृगापुत्रीय अध्ययन
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१. अन्य कें दुःख को देखकर उस के कर्मोदय के विषय में चिंतन करें .
२. पाप करते समय याद करें कि इस का फल भयंकर होगा .
३ . पाप का प्रामाणिक पश्चाताप पाप की ताकत को तोडता है .
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२०. महानिर्ग्रंथीय अध्ययन 
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१. भौतिक सामग्री में सच्चा एवं स्थायी सुख नहीं है .
२. आत्म निमज्जन के लिये काउसग्ग का अध्यास जरूरी है .
३. इच्छा की स्वयं स्फूर्त उपेक्षा से साधना बढती है .
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२१‌ . समुद्र पालीय अध्ययन
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१ . उपसर्ग को सहन करने से कर्म निर्जरा होती है .
२ . अशुभ विचार को रोकने हेतु विशेष पुरुषार्थ अपेक्षित है .
३ . जो समय धर्म के साथ जुड़ता है वह सफल है , शेष समय विफल है .
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२२ . रथनेमीय अध्ययन
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१ . अन्य को धर्म में अस्थिर बनाने से पाप लगता है .
२ . अन्य को धर्म में स्थिर बनाने से पुण्य  मिलता है .
३ . खुद की गलती को सुधारना यह उत्तम कार्य है .

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