अपनी आंखों को क्या दिखाना ; क्या नहीँ दिखाना यह आप के हाथ में है . सत्तर अस्सी साल पूर्व हम समंदर , पहाड़ी , जलप्रपात , नदीयो के संगम , उद्यान , महल , दुर्ग आदि देखने घर से निकलते थे .
जो आदमी घर के नही है और घर के हित में नहीँ है उन्हें घर में न देखा जाता था , न सूना जाता था . ऐसा होने के कारण हमे जो दिखता था वो सब हमारे मन को अधिक नुक्सान नही करता था . लेकिन जब से द्रश्य माध्यम ने घर में जगह बनाई है तब से पूरी दुनिया जैसे घर में आकर बस गयी है . हम जिन लोगो के बिना जी
सकते है उन लोगो को देखने की जैसे आदत लग गई है हमे . जिसे हम देखते है उसकी तरह होने का हम सोचने लगते है और उसीका अनुकरण करनेका मन करता है .भगवान की मूर्ति को देखोगे तो भगवान होने का मन होता रहेगा . आप गुरु की प्रतिकृति को देखोगे तो गुरु जैसा जीवन जीने का मन होगा मगर आप द्रश्य माध्यम के अनुचित द्रश्य देखते रहेगे तो आप का मन उसी द्रश्य की छाया में विचार करने लगेगा और विचारधारा बनाने लगेगा . आप तय कर लो कि आपको क्या नही देखना है . आप स्वयं को द्रश्य माध्यम से जितना बचाके रखेगे उतना ही अशुभ विचारो से बच पाओगे .
चातुर्मास प्रवचन 19
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