Home Hindiयवतमाल प्रवचन : १ to १२

यवतमाल प्रवचन : १ to १२

by Devardhi
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१ .

आप को जो सुख नहीं मिला है उसकी चिंता मत करो . आप को जो दुःख नहीं मिला है उसका चिंतन करो . अप्राप्त सुख की चिंता से तनाव बढ़ता है . अप्राप्त दुःख के चिंतन से तनाव कम होता है . आज के समय में दृश्य माध्यम के जरिये हमे सुख सुविधाओं की सामग्री अत्यधिक देखने मिल जाती है . फिर होता है यूं कि जो चीज़े हमारे लिए आवश्यक नहीं है उसकी इच्छाएँ बनती रहती है , जगती रहती है . हमे लगता है कि कुछ कुछ सामग्रीओं के बिना हम अधूरे हैं . पर हकीकत यह होती है कि हम आवश्यक सुखसाधनों से वंचित होते ही नहीं है . भारी दुःखों का न होना एक उपलब्धि है . बड़े संकटों का न होना एक आश्वासन है . आसपास के लोगों के जीवन में ऐसे कंई तनाव चल रहे है जिससे आप मुक्त है . आप को जो सुख मिले है वो अन्यों को मिले नहीं है यह भी सत्य है . अन्यों को जो दुःख मिले है वो आपको नहीं मिले यह भी सत्य है .. जैसे मृत्यु का अभाव स्वयं एक जीवन है वैसे दुःख का अभाव स्वयं एक आनंद है।
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२ .

हमने रिश्तों को चलाने के लिए सुख को माध्यम बनाया है . सुख देते रहो और सुख पाते रहो यह एक समीकरण है जो अधूरा है . सुख देना कोइ बड़ी बात नहीं है , दुःख न देना यह बहोत बड़ी बात है . आप चाहे कितना भी सुख दे , जिस दिन आप ने दुःख दिया उस दिन आप दुश्मन जैसे लगोगे . रिश्तों में सुख का लेना – देना चलता रहता है . रिश्ते टिकते है दुःख न देनेकी मानसिकता से . आप तारीफ़ न करे इससे फर्क नहीं पड़ता है लेकिन आप निंदा न करे उससे बहोत फर्क पड़ता है . आप फूल का हार न पहनाए उससे कोइ फर्क नहीं पड़ता लेकिन आप रास्ते में कांटे न बिछाए उससे बहोत फर्क पड़ता है .

अहिंसा शब्द को ध्यान से देखो . हिंसा न करना उसे अहिंसा कहते है . वैसे अदुःख शब्द बन सकता है . दुःख न दिया जाए वह अदुःख . हमारी वाणी , हमारे व्यवहार , हमारे आग्रहों के कारण कितने कितने लोगों दुःख पहुँच रहा होगा इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते है . अन्य को दुःख पहुंचाने वाले सभी व्यवहारों को बदल देने चाहिए . आप दुःख देते हो तो जवाब में आप को दुःख मिलता है . आप दुःख नहीं देते हो तो जवाब में आप को दुःख नहीं मिलता है . अन्य को सुख देना यह सामान्य बात है . अन्य को दुःख नहीं देना यह असामान्य बात है .

अन्य का सुख देखने से ईर्ष्या होती है और खुद के प्रति नाराज़गी बनती है . अन्य का दुःख देखने से सहानुभूति बनती है और खुद के लिए हिम्मत बनती है .
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३ .

अच्छे विचारों का संग्रह करते रहो . खरीदे हुए वस्त्र और गहनें जैसे कभी भी काम उपयोग में लिए जा सकते हैं वैसे उपार्जित शुभ विचार जीवन में बहोत काम आते हैं .
आप के पास शुभ विचार जितने अधिक हैं उतना ही आपके सुख का स्तर ऊँचा बन जाता है . आप के पास शुभ विचार जितने कम है उतना ही आपके सुख का स्तर कमज़ोर रह जाता है . शुभ विचार अपने आप नहीं आता है , उसे गुरु के द्वारा सिखना पड़ता है . एक अच्छा विचार आप को जो सुख देता है वह सुख दुनिया की किसी भी सामग्री से नहीं मिल सकता है .
प्रतिदिन कुछ अच्छे विचार आप सुनें यह प्रथम आवश्यकता है . अन्य को सुनाने वाले लोग बहोत है दुनिया में लेकिन अन्य को सुनने वाले लोग बहोत कम है दुनिया में . उल्टा-सीधा सुनाने वाले लोग बहोत मिल जाते हैं लेकिन अच्छी बात सुनाने वाले लोग कम मिलते हैं .
जो अच्छा सुना आपने , उस पर आप श्रद्धा बनाए यह दूसरी आवश्यकता है .
अच्छे विचार के आधार पर आप अपने जीवन में थोडासा बदलाव लाए यह तीसरी आवश्यकता है .

श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि – मानव भव , शुभ श्रवण , शुभ श्रद्धा और शुभ आचरण – ये सब दुर्लभ तत्त्व हैं .
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४ .

आसपास के लोगों में से किसी के मन में आप के कारण कोई दुःख चल रहा हो तो उस दुःख के उपर नज़र रखो एवं उस दुःख को दूर करने का प्रयास जारी रखो .

आप ने किसी को दुःख दिया हो तो उस दुःख की तीन खासियत होती हैं .

एक – दुःख देनेवाला भूल सकता है कि मैंने उसे दुःख दिया था . लेकिन दुःख पानेवाला याद रखता है कि उसने मुझे दुःख दिया था .
दो , कोई भी दुःख अपनेआप नही मिटता है , उसे मिटानेकी कोशिश करनी पड़ती है .
तीन , जिसने दुःख दिया हो उसीके हाथ से वह दुःख मिटता है .

दुःख आप ने दिया और फिर आपने उस दुःख को नहीं मिटाया ऐसी परिस्थिति में वह दुःखी जीव निराश होकर आर्तध्यान करेगा या अशांत बनकर रौद्र ध्यान करेंगा . आप के कारण कोई आर्तध्यान या रौद्रध्यान में फंसा रहे यह ठीक नहीं है .
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५ .

मौत एक नियत सत्य है . मौत को रोकना नामुमकिन है . प्रतिदिन तीन सवाल खुद को पूछिए –

१ . आप की मौत कब आएगी , आप को मालूम है ?
२ . आप की मौत किस रूप में आएगी , आप को मालूम है ?
३ . आप की मौत आपको कहाँ ले जाएगी , आप को मालूम है ?

आप के पास इसका जवाब तैयार नहीं है . मौत के बारे मेँ सोचनेके लिये हिम्मत चाहिए . जो मौत के विषय में सही तरीके से सोचता है वह आत्मा के लिए बहोत कुछ कर सकता है . यहाँसे जाना है वो तय है . जानेसे पूर्व ऐसी तैयारी कर लो जाते वख्त डर ना लगे .
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६ .

जीवन में उजाला भी होना चाहिए और खुशबू भी होनी चाहिए . ज्ञान की कमी से जीवन में अंधेरा बढ़ता है . अपने ज्ञान को बढ़ाते रहना चाहिए . नयानया सिखने समज़ने में आलस्य नहीं करना चाहिए . सिखी हुई बातों का विस्मरण न हो यह भी बहोत जरूरी है . ज्ञान उपार्जन से जीवन में उजाला बढ़ता है .

अच्छे कार्य करने का और अनुचित कार्य न करनेका संकल्प करना चाहिए . अच्छे कार्य न करने से और अनुचित कार्य करने से जीवन में मलीनता छा जाती है . रात को सोने से पूर्व का एक डेढ़ घंटे का समय किताबों के साथ गुज़ारना चाहिए . सोने से पूर्व का समय टीवी – लॅपटॉप – मोबाईल के साथ न बिताए . आरोग्य एवं अध्यात्म की दृष्टि से यह अति आवश्यक है आप का निद्रा के पूर्व का समय सद् वांचन के साथ ही बिते . शुभ कार्य की उपस्थिति के कारण जीवन खुशबू से भर जाता है .
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७ .

सुनना एक कला है जो सबके बस की बात नहीं है . लोगों का मानना है बोलने में मज़ा आता है . सच यह है कि सुनने की मज़ा कोई और ही हैं . सुननेवाला अपने अंदर के संचय को बढ़ाता है . आप सुनते हो तब खुद की सोच को आप भूल जाते हो कुछ समय के लिए . आप की सोच किसी ज्ञानी की वाणी के साथ बहने लगती है , यह एक धन्य अनुभव है . अपने विचार को सुधारने का , बदलने का एक सरल प्रयोग आप कर सकते हो सुनतेसुनते .

श्रवण से मनको नई विषयवस्तु मिलती है .
श्रवण से हृदय को एक अभिनव संवेदन मिलता है .
श्रावक शब्द में सुनने की प्रक्रिया का सन्मान हुआ है .
जो नयानया सिखने समज़ने के लिए उत्सुक है वह श्रावक है . जो अपने अज्ञान को जानता है वह श्रावक है . आप अच्छे श्रोता हो यह आप के अंदरूनी विकास की निशानी है . जो सुनना चाहता है वह प्रगति के मार्ग पर है . जो सुनना नहीं चाहता है वह अवनति के मार्ग पर है.
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८ .
मन वचन काया से जीवन चलता है .
मन वचन काया से संसार भी चलता है .
मन वचन काया से धर्म भी चलता है .
मन वचन काया को दोष रहित बनाने की कोशिश होती रहनी चाहिए .

मन का दूषण है ईर्ष्या . किसी की उपलब्धि से आप को जलन होती है वह ईर्ष्या है . आप से अधिक धन या सन्मान किसी को मिले तो मन में उसके प्रति ईर्ष्या जग जाती है . ऐसी ईर्ष्या आप की खुशी को खा जाती है . मन में ईर्ष्या रखने से व्यवहार भी बाधित हो सकता है . आत्मसंतोष को तीव्र बनाए और ईर्ष्या को दूर करने का संकल्प ले .

वचन का दूषण है निंदा . हम अन्य के लिए उलट सलट बातें करते हैं . अच्छा बोलने के बजाय बूरा बोलते है . हम अनुमोदना का भाव नहीं बनाते है बल्कि समीक्षा का भाव रखते हैं . किसी की बुराई करनेसे हमारी शालीनता कमज़ोर पड़ जाती है . गुणदृष्टि बनाए और वाणी को निंदा से दूर रखें .

शरीर का दूषण है विराधना . हम किसी भी जीव को पीडा दे या व्याघात पहुंचाए उसे विराधना कहते है . ऐसी जीवनचर्या बनाए कि – एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय , त्रीन्द्रिय , चतुरीन्द्रिय , पंचेन्द्रिय जीवों की विराधना कमसेकम हो .

ईर्ष्या, निंदा एवं विराधना का आधिक्य , अधर्म की निशानी है़ .
ईर्ष्या, निंदा एवं विराधना की अल्पता , धर्म की निशानी है़ .
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९ .

अच्छी आदतें बनाएं . जरूरी है . विश्व में जो भी धर्मात्माएं हैं वो छह प्रवृत्तिओं को आदत बनाकर चलते हैं जिसका उल्लेख इस श्लोक में है .

देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने ।।

१. रोज कुछ समय के लिए भगवान् के विचारों में डूब जाना चाहिए . मंदिर , मूर्ति , माला आदि आलंबनों का सहारा लेकर भगवान् के साथ तादात्म्य बनाने से भगवद् भक्ति का आनंद मिलता है .
२ . आ आचार से शुद्ध ऐसे साधक की सेवा करते रहना चाहिए . साधु साध्वी की सेवा से बड़ा पुण्य मिलता है . साधु साध्वी की सेवा से संस्कार भी अच्छे मिलते हैं . ज्ञानी जनों की सेवा आत्मा के लिए लाभकारी होती है .
३ . आत्मा के विषय में कुछ ना कुछ पढ़ते रहे सुनते रहे जीवन उपयोगी बातें अलग होती है आत्मा के लिए उपयोगी बातें अलग होती है उसी का श्रवण करें जो आत्मा को काम आए , इसे ही स्वाध्याय कहते हैं . प्रतिदिन स्वाध्याय को अधिक से अधिक समय देना चाहिए .
४. अपनी इच्छाओं को अंकुश में रखें . खुद को रोकना सीखे खुद को मना करना सीखें . किसी न किसी रूप में त्याग की आदत बनाएं .
५ . आहार के विषय में संयम रखें . शरीर को उपवास आदि की आदत होनी चाहिए . खाने – पीने का शोख कम करें .
६ . धन , अन्न , वस्त्र आदि का दान करते रहे . किसी को सहयोग देने से परहेज़ न बने . दिल से उदार बने .

जो भी धर्मात्मा होता है उसमें ये छह आदतें अवश्य देखने मिलती है .
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१० .

गुरु के उपकार अनंत हैं . गुरु का स्मरण किसी एक दिन तक सीमित नहीं हो सकता है . गुरु की याद – हरघडी , हरपल , हरदिन , हरसाल , हरदम बनी रहती है . गुरु सात्त्विक प्रेरणाओं के दायक है अत: गुरू के लिए अप्रतिम आदरभा़व बना रहता है .

गुरु आप की शक्ति को जानते हैं .
गुरु आप की कमज़ोरी को जानते हैं .
विशेष बात यह है कि गुरु आप के भीतर में बसी सम्भावनाओं को जानते हैं . गुरु आप की संभावनाओं को उजागर करते हैं . गुरु आप के लिए सपना देखते हैं . गुरु आप को सपना देते हैं और सपना पूरा करने की ताक़त देते हैं . पिछले पचास – साठ सालों से , आप के जीवन में , गाँव में , शहर में कोई न कोई गुरु आए हैं और उन्हीं की वजह से आप सुख संतोष का अनुभव ले पा रहे हो . अगर ये गुरुजन आते नहीं थे तो जीवन अधूरा रह जाता था .
सभी गुरुओं को याद करते रहिये और स्वयं को कृतज्ञभाव से भर लीजिये .
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११ .

आज की युवापीढ़ी प्रतिदिन कमसेकम एक घंटा धार्मिक गतिविधिओं को दे यह अति आवश्यक है . चार कार्य ऐसे हैं जिसमें युवा शक्ति की बडी आवश्यकता है .

प्रथम कार्य : जैन साधु – साध्वीओँ की पदविहार यात्रा में जो भी व्यवस्थाएं लगती हैं उसमें युवाओं को व्यक्तिगत अभिरूचि लेकर जुडना चाहिए . जैन साधु – साध्वीओँ की विहारयात्रा में , भोजनव्यवस्था , निवासव्यवस्था , आरोग्य – उपचार जैसे कार्य आज बुजुर्ग पदाधिकारीओं के भरोसे पर चल रहें है . जरूरी है कि इन कार्यों को युवापीढी संभालना शुरू कर दें .

द्वितीय कार्य: हमारे पूर्वजों ने हमे विरासत में जो बड़े बड़े धार्मिक संस्थान दिए हैं उसका रखरखाव केवल नौकरों के भरोसे पर चल रहा है . युवाओं ने साथ में मिलकर अपने अपने धार्मिक संस्थानों की स्वच्छता की व्यवस्था स्वयंसेवा के रूप में खुद संभालनी चाहिए .

तृतीय कार्य : हमारे धार्मिक नियमों के अनुसार जो आहार संस्कृति निर्धारित है उसका ज्ञान हासिल कर ले और यथासंभव पालन करने की कोशिश करें . हमारे पूर्वजों ने जो महान् आचार – विचार की नियत प्रणाली हमें दी है उसे जानकर अगली पीढ़ी तक पहुँचाना यह हमारी जिम्मेदारी है .हमे अपनी जिम्मेदारी को भूलनी नहीं चाहिए .

चतुर्थ कार्य : हमारे प्राचीन तीर्थों में जो व्यवस्थाएं चल रही हैं उसमें समय देकर खुदको वहां जोड़िये . तीर्थ की एक यात्रा करने से केवल एक यात्रा का पुण्य मिलता है जबकि तीर्थ – व्यवस्था का एक कार्य करने से आठ यात्राओं का पुण्य मिलता है . केवल यात्रा तक सीमित मत रहो , व्यवस्थाओँ के साथ भी जुड़ते रहो .
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१२ .

व्याख्यान के समय जो दीप एवं धूप लगाए जाते हैं उसमें मंदिरजी के घी – बाती – माचिस – धूप का उपयोग बिलकुल नहीं होना चाहिए . कभीकभार जानेअनजाने में ऐसी गड़बड़ हो जाती है . सालभर में व्याख्यान में धूप – दीप का जो खर्च होता है उसकी आर्थिक व्यवस्था में , आज के दिन , हमे कुछ लिखवाना चाहिए . ज्ञान पंचमी के दिन घी का दान महत्त्वपूर्ण होता है .

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