Home Hindiजैन सिलेबस : दर्शन आचार . २ : निष्कांक्षित भाव

जैन सिलेबस : दर्शन आचार . २ : निष्कांक्षित भाव

by Devardhi
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कांक्षा का अर्थ है वफादारी का अभाव .
निष्कांक्षित भाव का अर्थ है वफादारी का पालन .
जैन धर्म के लिए वफादारी रखनी चाहिए .
जैन धर्म के लिए वफादारी न रखना , अनुचित है .
वफादारी कैसे होती है ? वफादारी कैसे टूटती है ? 
यह समझ लेना चाहिए . तीन बातें हैं .

१ .
जैन धर्म के अनुसार जो वीतराग है वोही भगवान् है .
जो वीतराग नहीं है उसे हम भगवान् मान लेते हैं और उसका भगवान् की तरह पूजा – सत्कार करने लगते हैं तब कांक्षा – दोष लगता है .

२ .
जैन धर्म कहता है कि – पंच आचार का पालन करना वोही धर्म है .
जिस में पंच आचार की पुष्टि मुख्य नहीं है बल्कि
भौतिक इच्छाओं की पूर्ति ही मुख्य है ऐसी प्रवृत्तियों को हम धर्म मान कर करने लगते हैं तब कांक्षा – दोष लगता है .

३ .
जैन धर्म में जो आचार एवं विचार है उससे विपरीत आचार एवं विचार को धर्म मान लेने से कांक्षा – दोष लगता है .
जैन धर्म में जिस त्यौहार का स्थान नहीं है उस त्यौहार को मानने से एवं मनाने से कांक्षा – दोष लगता है .
जैन धर्म में जिस मान्यता का स्थान नहीं है उस को मान्यता को सन्मान देने से कांक्षा – दोष लगता है .

तीनों प्रकार की कांक्षा से खुद को बचाके रखना चाहिए . वोही निष्कांक्षित भाव है .

स्वाध्याय – 

१ . कांक्षा दोष किसे कहते है .
२ . प्रथम कांक्षा क्यां है ?
३ . द्वितीय कांक्षा क्यां है ?
४ . तृतीय कांक्षा क्यां है ?

 

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