Home Hindiआत्म प्रशंसा से विचार भेद बनता है

आत्म प्रशंसा से विचार भेद बनता है

by Devardhi
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मयणा सुंदरी की माता थी रूप सुंदरी . वह प्रजापाल राजा की द्वितीय रानी थी . प्रथम रानी का नाम था सौभाग्य सुंदरी . उसकी पुत्री का नाम था सुर सुंदरी . कथा का प्रारंभ राज सभा से होता है जहां राजा दोनों राजकुमारी की परीक्षा लेता है . अलग-अलग सवाल पूछे जाते हैं और सुंदर-सुंदर जवाब दिए जाते हैं . सब खुश होकर सुना करते हैं . परीक्षा के अंत में जब राजा अपनी पुत्री को कुछ ईष्ट दान करने की उद् घोषणा करता है तब खुद की प्रशंसा करने लगता है . आत्म प्रशंसा करने से व्यक्ति का खुद का गौरव कभी बढ़ता नहीं है . सामान्य रूप से देखें तो आत्म प्रशंसा अहंकार के कारण होती है . अहंकार मन में दो बातें पनपाता है :  मैं सर्व श्रेष्ठ हूॅं , अन्य लोग मेरे मुकाबले में तुच्छ है . किसी की कमजोरियां देखना , उन कमजोरी को उजागर करना और लोगों को यह बताना कि यह कमजोरी मेरे में नहीं है , आत्म प्रशंसा का सारांश यह होता है . 

इस विषय में सुर सुंदरी का प्रतिभाव स्वार्थ पूर्ण था उसने पिताजी की आत्म प्रशंसा का शत प्रतिशत समर्थन किया था . जब कि मयणा सुंदरी का प्रतिभाव बड़ा स्पष्ट था : जीवन में जो भी होता है पुण्य और पाप के कारण होता है . पुण्य अच्छा है तो हम सफ़ल होते रहते हैं . पाप तीव्र है तो सफलता नहीं मिल पाती है . सफलता का यश पुण्य को देना चाहिए ,  निष्फलता का अपयश पाप को देना चाहिए . खुद की प्रशंसा , खुद के ही मुंह से करते रहना उचित नहीं है . 

राजा को सुरसुंदरी का व्यवहार अच्छा लगा था . राजा ने सुरसुंदरी को पूछा था कि तुझे क्यां चाहिए ? जो चाहे मांग ले . सुरसुंदरी ने सभा में एक राजकुमार को पहली बार देखा था , वह उससे आकर्षित हो गई थी . सुरसुंदरी ने उस राजकुमार के साथ अपना विवाह हो ऐसी इच्छा व्यक्त करी . आत्म प्रशंसा प्रेमी राजा ने फौरन निर्णय ले लिया . अरिदमन नामक उस राजकुमार के साथ सुरसुंदरी के विवाह की उद् घोषणा राजा ने कर दी . मैं तत्काल ईच्छा पूर्ति कर सकता हूॅं , राजा ने दिखा दिया . 

अब , मयणासुंदरी की बारी थी . राजा कह रहा था कि मैं दाता हूं , विधाता हूं . मयणासुंदरी का प्रतिपादन था कि दाता , विधाता की भूमिका पुण्य – पाप के हाथ में है . पुण्य अच्छा रहा तो प्रतिकूल स्थिति भी अनुकूल हो जाए और पाप तीव्र रहा तो अनुकूल स्थिति भी प्रतिकूल हो जाए . मयणासुंदरी के प्रतिपादन से राजा का अहंकार आहत हुआ . अतः राजा ने कुष्ठरोगी श्रीपाल के साथ मयणा का विवाह करा दिया . बाद में वैसा ही हुआ जैसा मयणा सुंदरी ने कहा था . श्रीपाल की प्रतिकूलताओं का नाश हो गया . 

सुरसुंदरी का क्यां हुआ ? राजकुमार अरिदमन के साथ विवाह होने के बाद वह सुखी सुखी रही होगी ऐसा लगता है . लेकिन ऐसा हुआ नहीं . पिता प्रजापाल राजा ने धामधूम से विवाह तो करवाया पर विवाह का मुहूर्त समय सुर सुंदरी चुक गई . कन्या विदाय के समय राजा ने बहुत अधिक समृद्धि सामग्री दी थी. राजकुमार अरिदमन डरपोक निकला . अरिदमन /  सुरसुंदरी शंखपुरी पहुंचे . नगर प्रवेश का मुहूर्त अगले दिन का था . अरिदमन / सुरसुंदरी नगर के बाहर रात्रि निवास किया . सेना के अधिकांश सैनिक रात को नगर में गए . उसी रात चोर लोगों की टोली आई . सारी वैभव सामग्री उन्होंने लूंटी . डर के मारे अरिदमन भाग गया . अकेली सुरसुंदरी का चोर लोगों ने अपहरण कर लिया . अरिदमन किसी तरह सुरक्षा नहीं दे पाया . चोर लोगों ने सुरसुंदरी को नेपाल में बेच दिया . नेपाल से उसे बब्बरकोट की बाजार में गणिका को बेचा गया . गणिका ने उसे नृत्य निपुण बनाया और किसी नृत्य मंडली में  शामिल किया . राजा महाकाल ने उस नृत्य मंडली को खरीद लिया . बब्बरकोट की राजकुमारी का विवाह श्रीपाल के साथ  हुआ था तब राजा ने श्रीपाल को उपहार में बहुमूल्य सामग्री के साथ नृत्य मंडली भी दी थी . इसी में सुरसुंदरी श्रीपाल के साथ जुड़ गई .  श्रीपाल उज्जैनी पहुंचें और उज्जैनी के राजा के समकक्ष साबित हुए तब जाके सुरसुंदरी को समझ में आया कि जिस का विवाह मयणा सुंदरी के साथ किया गया है वही कुष्ठरोगी आज श्रीपाल का अवतार धारण कर चुके हैं . अपने पूरे परिवार को वह देखती है लेकिन परिवार का एक भी सभ्य उसे पहचान नहीं पाता है . राज दरबार में उसका नृत्य होना था तब वह फूट फूट कर रोई . उसने स्व मुख से खुद की पूरी कहानी सुनाई . परिवार जन गद्गद हो गए . सुर सुंदरी ने कहा : મયણાને જિન ધર્મ ફલિયો , બલિયો સુરતરુ હો , મુજ મને મિથ્યાધર્મ ફલિયો , વિષફળ વિષતરુ હો . अर्थात् मयणा को जिनधर्म ने सफल बनाया है , मुझे मिथ्या धर्म ने निष्फल बनाया . 

श्रीपाल ने अरिदमन को बुलाया , उपालंभ दिया . दोनों को मिलाया , समझाया . दोनों को जिनधर्म और समकित प्राप्त हुआ . 

सिद्धचक्र की आराधना प्रचंड पापों का नाश करती है और प्रकृष्ट पुण्य का निर्माण करती है . अहंकार , आत्मप्रशंसा , आक्रोश भाव , अति आग्रहशीलता कभी न रखें . नम्रता , अनुमोदना , मृदुता , विवेकशीलता अवश्य धारण करें . आत्मप्रशंसा से विचारभेद उपस्थित हुआ था . आत्मप्रशंसा से बचें और विचारभेद की परिस्थिति को यथासंभव टालते रहे .

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Gemma1207 April 26, 2025 - 6:31 am

Very good

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